माओवादियों और सत्ता के निशाने पर स्कूल भवन
युद्ध जारी है। सत्ता की बंदूक से माओवादियों की आये दिन हत्या हो रही है तो माओवादियों के हाथ अर्द्धसैनिक या पुलिस बलों के जवान भारी संख्या में मारे जा रहे हैं। कोई किसी को बख्शने के मूड में नहीं है। भारत सरकार ने तो माओवादियों के खिलाफ ‘युद्ध’ की घोषणा ही कर रखी है और माओवादियों का चिर परिचित नारा ही है। ‘सत्ता का जन्म बंदूक की नली से होता है।’ कोई नहीं जानता, सीमा से परे देश के भीतर ही लड़े जा रहे इस युद्ध में जीत किसकी होनी है और हार किसका होना है?मगर इस युद्ध में जो मारे जा रहे हैं वे सभी के सभी इसी देश के नागरिकों अर्थात भारतवाशी की जवान संताने हैं। कोई अतिषयोक्ति भी नहीं होगी यदि कहा जाये कि सत्ता की बंदूक से मरने वाला माओवादी और माओवादियों की बंदूक से मरने वाला जवान कही एक ही खानदान के दो सपूत न निकलें पड़े।
यह तो हुआ युद्ध का रक्तरंजित दृश्य । मगर इससे परे इस युद्ध का एक दृश्य और भी है। इस दृश्य में इस या उस पक्ष के किसी जवान का शरीर छलनी होता हुआ तो नहीं दिखता मगर जवान होती एक पूरी की पूरी पीढ़ी के सपनों/उम्मीदों के परखचे उड़ते साफ-साफ दिख पड़ते हैं। यह है देश के दूर दराज के गांवों विशेषतः बिहार-झारखंड के गांवों-कस्बों में अवस्थित सरकारी स्कूलों के भवनों को आये दिन उड़ाया जाना।
इस कार्रवाई में सीधे-सीधे नजर तो आते हैं माओवादी लड़ाकू मगर न दिखते हुए भी इसमें सत्ता के हाथों की भागीदारी जरा भी कम नहीं होती। स्कूल भवनों को उड़ाये जाने की अपनी ‘क्रांतिकारी’ कार्रवाइयों को उचित ठहराने के पीछे माओवादियों का तर्क यह होता है कि वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि सरकार उन्हें कुचलने के लिए जो अर्द्धसैनिक या पुलिस बल भेजती है, उनको ठहराने के लिए स्कूल भवनों को ही शरण स्थली बनायी जाती है। इस तरह देखा जाये तो लगता है कि माओवादियों के तर्क में दम तो है जिसका आधार है- दुश्मन के हर ठिकाने को ध्वस्त करो। माओवादी थानों पर हमला करते हैं, रास्तों में बारुदी सुरंगें बिछा कर पुलिस वाहनों को उड़ा देते है और इसी क्रम में स्कूल भवनों को भी ध्वस्त करने में लग गये हैं।

इस नजरिये से देखा जाये तो सरकारी स्कूलों के भवनों को उड़ाने का अर्थ वंचितों के बच्चों के हाथ से उनके शिक्षित होने के एक आखिरी अवसर को नेस्तनाबूत कर देना है। इस गुनाह में माओवादी और सरकार दोनों ही समान रुप से हिस्सेदार हैं। सरकार ने सरकारी स्कूली व्यवस्था को शिक्षकों का भारी अभाव बनाये रख कर वैसे ही कम जर्जर नहीं कर रखा है। रही सही कसर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अवस्थित सरकारी स्कूल भवनो को अर्द्धसैनिक या पुलिस बलों के ठहराव का केन्द्र बना कर पूरा करने में लग गयी है - इस सच्चाई से पूरी तरह वाकिफ होने के बावजूद कि उसके इस कृत्य के बाद इन स्कूल भवनों को माओवादियों द्वारा ध्वस्त किया जाना तय है। कमाल की बात तो यह है कि चाहे माओवादी हो या सरकारें दोनों ही समाज के वंचित वर्ग के हक की खातिर ही खड़े होने की बता करते हैं। लेकिन स्कूलों के मामले में दोनों ही वंचितों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करने के गुनाह में एक ही पायदान पर खड़े साफ-साफ नजर आते हैं। इस मामले में भी कोई किसी से पीछे हटने को तैयार होता नहीं दिखता।
युद्ध जारी है और इस युद्ध में मानव जीवन के साथ-साथ मानव मेधा के निर्माण होने के एक जीवंत उपकरण अर्थात स्कूल भवनों का भी नष्ट होना अनवरत जारी है।
bilkul sahi kaha iti tumne......
ReplyDeletethanks sumit......maine bus apne lekh dwara is sacchai ko samne lane ki kosisi ki hai ki sarkar or naksali dono hi samaj ke hit ka dhindora pitte hai magar asliyat to ye hai ki ye dono hi manavta ke sath khelvar kar rahe hai.......
ReplyDeletebahut hi acccha lekh hai iti ji.........bahut hi acchi tarah se apne sarkar or naksalion ka pardafash kiya hai.......
ReplyDeletegood one iti...keep it up...
ReplyDeletethank u saba...........
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