कलात्मक श्रेष्ठता या कला का अंत
-इति शरण
अमेरिकी कला समीक्षक डोनाल्ड कुस्पिट ने अपनी पुस्तक 'द एण्ड आॅफ आर्ट' में एक घटना की चर्चा करते हुए कला के अंत की बात कही थी। इस सिलसिले में उन्होनें चर्चित और अत्यंत सफल ब्रिटानी कलाकार डेमियन ईस्ट की कला के साथ हुए एक दिलचस्प हादसे का हवाला दिया था। हस्र्ट ने मेफेसर गैलरी की खिड़की में करोड़ों की कीमत का एक इंस्टोलेशन बनाया था। लेकिन इस इंस्टोलेशन को झाडू लगाने वाले कर्मचारी ने कूड़ा समझ कर फेंक दिया। उस कर्मचारी का कहना था कि"मुझे तो यह कलाकृति लगी ही नहीं थी। मैनें तो उसे कबाड़ समझ कर फेंक दिया।"
यह सिर्फ एक अकेली घटना नहीं जहां कला को ऐसी किसी चुनौती का सामना करना पड़ा हो। कला का विकास सभ्यता के विकास के साथ जोड़ कर देखा जाता है। विकास के हर क्रम में कला के समझ एक गंभीर सवाल, एक गंभीर परिस्थितियां आकर खड़ी होती रही हंै। आज जब दिल्ली के एक आर्ट गैलरी में हुसैन और सूजा की चित्रकला प्रर्दशनी पर कुछ कट््टरपंथी ताकतों द्वारा उपद्रव मचाया जाता है तो कला के सामने उसकी स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति को सीमा से बांधने जैसा ही लगता है।
हांलाकी कला के समक्ष ऐसी परिस्थितियां और उसे सवालिया घेरे में लाने का जिम्मेदार पूर्ण रूप से कट््टरपंथी ताकतों या विचारों को नहीं बताया जा सकता। कभी-कभी प्रगतिशील कहे जाने वाले वर्गों द्वारा भी कला जगत मंेे प्रहार होता रहा है। कला के एक युग दादावाद को इसके प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मुख्य रूप से यूरोप में कला क्षेत्र में बुर्जुआवादीसमाज का तेजी से विस्तार होने लगा था। कलाकृतियों में पूंजी निवेश भरी मुनाफे और सुरक्षित व्यापार समझा जाने लगा। कलाकृतियों के दाम आसमान छूने लगे। इन सबके परिणामस्वरूप कुछ कलाकर्मियों की बुर्जुआ समाज के प्रति नफरत बढ़ गई। उन्होनें प्रतिवाद में अजीबोगरीब तरीके से कला की प्रस्तुति और प्रर्दशन करना प्रारंभ किया। 1920 में जर्मनी में शौचालय से जुड़ी एक जगह में दादावादी कलाकृतियों की प्रर्दशनी लगाई गई जिसमें प्रर्दशन में लगी कला को दर्शकों को कुल्हाड़ी देकर उनसे कलाकृतियों को तोड़-फोड़ करने को कहा गया। इसी तरह दुशा नामक एक कलाकार ने मोनालिसा की प्रसिद्ध पेंटिग के फोटो चित्र में मूछें जोड़कर उसका मजाक उड़ाया। धीरे-धीरे जर्मनी, अमेरीका, फ्रांस आदि देशों में अराजक प्रवृत्ति के साथ-साथ प्रगितिशील विचारों वाले कलाकार भी दादावाद में दिलचस्पी लेने लगे। इस युग में कई तरह से स्थापित कला प्रवृत्तियों का मजाक उड़ाया गया।
सामाजिक विकास के साथ-साथ कला जगत में भी विकास और बदलाव की परिस्थ्तिियां जन्म लेती रही हैं। कभी प्राकृतिक सौंदर्य ही कला का मूल आधार माना गया तो कभी शारीरिक यथार्थ के प्रति निजी प्रतिक्रिया को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। इसी प्रकार विकास के क्रम में कभी एक्सन तो कभी पाॅप सरीखे पेंटिग अस्तित्व में आए।
मगर विकास के इस दौर के हर क्रम में कला के समझ अनुकूल परिस्थितियों के जन्म के साथ-साथ नकरात्मक वातावरण का भी वर्चस्व भी रहा है। कुछ दौर में तो कला को एक निम्न दर्जे की श्रेणी में भी रखा गया। इसके एक बड़े उदाहरण के रूप में वाॅन गाग की मशहूर सूरजमुखी श्रृंखला पेंटिग को देखा जा सकता है। इसे वाॅन गाग की मृत्यु के 97 साल बाद रिकार्ड तोड़ दाम तो मिले मगर उनके जीवन काल में उनकी चित्रकला को कुछ खास तवज्जो नहीं मिल सका। यहां एक और बेहद दिलचस्प अथवा दुखदायी तथ्य यह है कि हमारे समाज में कई मशहूर चित्रकारों की मृत्यु का कारण उनकी विक्षिप्ता रही है। वान गॅाग, गोगां, एडवर्ड मुंच कुछ कालजयी कलाकारों के जीवन का अंतिम दौर मानसिक विक्षप्ता का रहा है। इसका कारण बहुत हद तक उनकी पारिवारिक एवं निजी परिस्थ्तिि रही है। मगर एक कारण उनकी कलाकृतियों को उनके जीवन काल में सामाजिक महत्ता प्राप्त ना होना भी माना जा सकता है।
बहरहाल, आज के युग को आधुनिक या कहें कारपोरेट युग का दर्जा दिया जाता है, जहां कला जगत को भी एक खास तवज्जो के साथ देखा जाने लगा है। कला एवं कलाकार को समाज में एक अलग प्रतिष्ठा, सम्मान का दर्जा प्राप्त है और कलाकृतियों की ऊंची बोलियां लगने लगी हंै।
मगर इस स्वतंत्रता और सम्मान के साथ क्या कला को ’कलात्मक’ ऊंचाईयां भी प्राप्त हुई है? अमेरिकी कला समीक्षक डोनाल्ड कुस्टिप का तर्क है कि ’आज पेंटिग नहीं हो रही है- परफाॅमेंस आर्ट को ही पेंटिग समझा जा रहा हैै। आज आर्टिस्ट एक तरह से पोस्ट आर्टिस्ट में बदल गया है। आज कलाकार के व्यक्तित्व को भी मार्केट मंें ऊंचे दामों में बेचा जा रहा है।’हम देखते हैं कि बाजार ने कला को एक खुला मंच तो जरूर प्रदान किया है मगर इसके साथ ही कला के बाजारीकरण ने कला को महज एक बिकाऊ सामग्री बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। बाजारवाद के इस अंधे दौर में अश्लील पेंटिग का एक अलग चलन शुरू हो चुका है। हांलाकि कला में श्लील-अश्लील का पैमाना निर्धारित करना एक अलग बहस है। हमारे समाज में तो न्यूड पेंटिग और अश्लीलता पर एक अच्छी खासी बहस होती रही है। प्राचीन काल से मंदिरों की दिवारों अथवा गुफाओं में जिस भव्यता से चित्रित किया जाता रहा है और उसे मान्यता दी जाती रही है वहीं आज के इस आधुनिक कारपोरेट युग में न्यूड पेंटिग को लेकर कुछ रूढि़वादी ताकतों द्वारा भारी बवाल मचाना और उनपर हमला होते देखना कम दिलचस्पी का सबब नहीं है। इसका शिकार हुसैन और सूजा जैसे मशहूर चित्रकारोें की कलाकृतियों को भी होना पड़ा है।
हुसैन को तो उनकी देवी-देवताओं की न्यूड पेंटिग के कारण एक तरह से देश निकाला की सजा तक भुगतनी पड़ी। न्यूड को पूर्ण रूप से अश्लील मान लेना बेमानी ही लगती है। खासकर हमारे भारतीय समाज में जहां प्राचीन संस्कृति की पहचान के रूप में मंदिरों, गुफाओं या कंदराओं में व्याप्त देवी-देवताओं के नग्न चित्रों एवं मूर्तिकलाओं को भारी दिलचस्पी एवं श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में देख जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुजराहो का मूर्तिशिल्प तथा ऐतिहासिक कामसूत्र पर आधारित लघु चित्र हैं। गौरतलब बात है कि समाज का रूढि़वादी और कट्टरपंथी वर्ग भी इन्हें पूर्ण समर्थन के साथ भारतीय संस्कृति की धरोहर मानता रहा। ऐसे में आज के दौर में एक चित्रकार अपनी कलाकृति को न्यूड पेंटिग के रूप में पेश करता है तो रूढि़वादी और कट्टरवादी तत्वों द्वारा उसका विरोध अफसोसजनक के साथ हास्यास्पद भी लगता है।
पिछले दिनों पटना आर्ट काॅलेज के एक छात्र को उसके वार्षिक परिक्षा के प्रोजेक्ट के रूप में महाविद्यालय की एक महिला शिक्षिका द्वारा ऐतिहासिक मुगल तथा राजस्थानी शैली में लघु चित्रण का स्वतंत्र चित्रण करने के लिए कहा गया था। मगर जब छात्र ने कामसूत्र पर आधारित लघुचित्र की प्रस्तुति की तो महाविद्यालय के शिक्षकों द्वारा छात्र को परीक्षा में अनुतिर्ण कर दिया गया। महाविद्यालय के प्रचार्य का ेकहना था कि ”किसी भी छात्र द्वारा एक महिला शिक्षिका को इस तरह का अश्लील चित्र नहीं दिया जा सकता।” जबकि मुगल एवं राजस्थानी चित्रण शैली में पहले भी राजघरानों के निजी एवं अतरंग जीवन की प्रस्तुति होती रही है। अब इसके बावजूद जब किसी कला संस्था में ही कला पर रूढि़वादी सोच के कारण ऐसी घटना घटे तो वह कला की स्वतंत्रता पर एक गंभीर सवाल तो खड़ा करती ही है। भारतीय चित्रकार अर्पिता सिंह ने अपने एक इंटरव्यू में चित्रकला में न्यूड की जरूरत और समर्थन में अपनी बात रखते हुए कहा था कि ’मुझे न्यूड पेंटिग की जरूरत ऐसे हुई कि अगर कपड़े बनाओ तो उसके लिए रंग सोचना पड़ता है जो ब्रक पैदा करता है। मैं ब्रेक नहीं चाहती थी। मैं चाहती थी कि मैं उस शरीर को पूरा बना सकूं। इसलिए मुझे कोई जरूरत नहीं थी कि मैं एक और रंग से उसे ढ़ाप सकूं।’
बहरहाल, न्यूड पेंटिग में श्लीलता और अश्लीलता एक अलग बहस का मुद्दा है। मगर जिस रूप में आज कुछ कलाकार को बिकाऊ और बाजारू बनाकर बाजार में प्रोजेक्ट् के रूप में पेश कर रहे हैं उससे तो डोनाल्ड कुस्पिट की ”कला का अंत” वाली बात में दम तो दिखता ही है। मशहूर चित्रकार पिकासो ने कहा था कि ”कला में हम कुछ खोजते नहीं बल्कि पाते हैं।” मगर आज कला से कुछ पाने की जगह कला में बाजारीकरण को ढूंढा जा रहा है।
-इति शरण
अमेरिकी कला समीक्षक डोनाल्ड कुस्पिट ने अपनी पुस्तक 'द एण्ड आॅफ आर्ट' में एक घटना की चर्चा करते हुए कला के अंत की बात कही थी। इस सिलसिले में उन्होनें चर्चित और अत्यंत सफल ब्रिटानी कलाकार डेमियन ईस्ट की कला के साथ हुए एक दिलचस्प हादसे का हवाला दिया था। हस्र्ट ने मेफेसर गैलरी की खिड़की में करोड़ों की कीमत का एक इंस्टोलेशन बनाया था। लेकिन इस इंस्टोलेशन को झाडू लगाने वाले कर्मचारी ने कूड़ा समझ कर फेंक दिया। उस कर्मचारी का कहना था कि"मुझे तो यह कलाकृति लगी ही नहीं थी। मैनें तो उसे कबाड़ समझ कर फेंक दिया।"
यह सिर्फ एक अकेली घटना नहीं जहां कला को ऐसी किसी चुनौती का सामना करना पड़ा हो। कला का विकास सभ्यता के विकास के साथ जोड़ कर देखा जाता है। विकास के हर क्रम में कला के समझ एक गंभीर सवाल, एक गंभीर परिस्थितियां आकर खड़ी होती रही हंै। आज जब दिल्ली के एक आर्ट गैलरी में हुसैन और सूजा की चित्रकला प्रर्दशनी पर कुछ कट््टरपंथी ताकतों द्वारा उपद्रव मचाया जाता है तो कला के सामने उसकी स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति को सीमा से बांधने जैसा ही लगता है।
हांलाकी कला के समक्ष ऐसी परिस्थितियां और उसे सवालिया घेरे में लाने का जिम्मेदार पूर्ण रूप से कट््टरपंथी ताकतों या विचारों को नहीं बताया जा सकता। कभी-कभी प्रगतिशील कहे जाने वाले वर्गों द्वारा भी कला जगत मंेे प्रहार होता रहा है। कला के एक युग दादावाद को इसके प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मुख्य रूप से यूरोप में कला क्षेत्र में बुर्जुआवादीसमाज का तेजी से विस्तार होने लगा था। कलाकृतियों में पूंजी निवेश भरी मुनाफे और सुरक्षित व्यापार समझा जाने लगा। कलाकृतियों के दाम आसमान छूने लगे। इन सबके परिणामस्वरूप कुछ कलाकर्मियों की बुर्जुआ समाज के प्रति नफरत बढ़ गई। उन्होनें प्रतिवाद में अजीबोगरीब तरीके से कला की प्रस्तुति और प्रर्दशन करना प्रारंभ किया। 1920 में जर्मनी में शौचालय से जुड़ी एक जगह में दादावादी कलाकृतियों की प्रर्दशनी लगाई गई जिसमें प्रर्दशन में लगी कला को दर्शकों को कुल्हाड़ी देकर उनसे कलाकृतियों को तोड़-फोड़ करने को कहा गया। इसी तरह दुशा नामक एक कलाकार ने मोनालिसा की प्रसिद्ध पेंटिग के फोटो चित्र में मूछें जोड़कर उसका मजाक उड़ाया। धीरे-धीरे जर्मनी, अमेरीका, फ्रांस आदि देशों में अराजक प्रवृत्ति के साथ-साथ प्रगितिशील विचारों वाले कलाकार भी दादावाद में दिलचस्पी लेने लगे। इस युग में कई तरह से स्थापित कला प्रवृत्तियों का मजाक उड़ाया गया।
सामाजिक विकास के साथ-साथ कला जगत में भी विकास और बदलाव की परिस्थ्तिियां जन्म लेती रही हैं। कभी प्राकृतिक सौंदर्य ही कला का मूल आधार माना गया तो कभी शारीरिक यथार्थ के प्रति निजी प्रतिक्रिया को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। इसी प्रकार विकास के क्रम में कभी एक्सन तो कभी पाॅप सरीखे पेंटिग अस्तित्व में आए।
मगर विकास के इस दौर के हर क्रम में कला के समझ अनुकूल परिस्थितियों के जन्म के साथ-साथ नकरात्मक वातावरण का भी वर्चस्व भी रहा है। कुछ दौर में तो कला को एक निम्न दर्जे की श्रेणी में भी रखा गया। इसके एक बड़े उदाहरण के रूप में वाॅन गाग की मशहूर सूरजमुखी श्रृंखला पेंटिग को देखा जा सकता है। इसे वाॅन गाग की मृत्यु के 97 साल बाद रिकार्ड तोड़ दाम तो मिले मगर उनके जीवन काल में उनकी चित्रकला को कुछ खास तवज्जो नहीं मिल सका। यहां एक और बेहद दिलचस्प अथवा दुखदायी तथ्य यह है कि हमारे समाज में कई मशहूर चित्रकारों की मृत्यु का कारण उनकी विक्षिप्ता रही है। वान गॅाग, गोगां, एडवर्ड मुंच कुछ कालजयी कलाकारों के जीवन का अंतिम दौर मानसिक विक्षप्ता का रहा है। इसका कारण बहुत हद तक उनकी पारिवारिक एवं निजी परिस्थ्तिि रही है। मगर एक कारण उनकी कलाकृतियों को उनके जीवन काल में सामाजिक महत्ता प्राप्त ना होना भी माना जा सकता है।
बहरहाल, आज के युग को आधुनिक या कहें कारपोरेट युग का दर्जा दिया जाता है, जहां कला जगत को भी एक खास तवज्जो के साथ देखा जाने लगा है। कला एवं कलाकार को समाज में एक अलग प्रतिष्ठा, सम्मान का दर्जा प्राप्त है और कलाकृतियों की ऊंची बोलियां लगने लगी हंै।
मगर इस स्वतंत्रता और सम्मान के साथ क्या कला को ’कलात्मक’ ऊंचाईयां भी प्राप्त हुई है? अमेरिकी कला समीक्षक डोनाल्ड कुस्टिप का तर्क है कि ’आज पेंटिग नहीं हो रही है- परफाॅमेंस आर्ट को ही पेंटिग समझा जा रहा हैै। आज आर्टिस्ट एक तरह से पोस्ट आर्टिस्ट में बदल गया है। आज कलाकार के व्यक्तित्व को भी मार्केट मंें ऊंचे दामों में बेचा जा रहा है।’हम देखते हैं कि बाजार ने कला को एक खुला मंच तो जरूर प्रदान किया है मगर इसके साथ ही कला के बाजारीकरण ने कला को महज एक बिकाऊ सामग्री बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। बाजारवाद के इस अंधे दौर में अश्लील पेंटिग का एक अलग चलन शुरू हो चुका है। हांलाकि कला में श्लील-अश्लील का पैमाना निर्धारित करना एक अलग बहस है। हमारे समाज में तो न्यूड पेंटिग और अश्लीलता पर एक अच्छी खासी बहस होती रही है। प्राचीन काल से मंदिरों की दिवारों अथवा गुफाओं में जिस भव्यता से चित्रित किया जाता रहा है और उसे मान्यता दी जाती रही है वहीं आज के इस आधुनिक कारपोरेट युग में न्यूड पेंटिग को लेकर कुछ रूढि़वादी ताकतों द्वारा भारी बवाल मचाना और उनपर हमला होते देखना कम दिलचस्पी का सबब नहीं है। इसका शिकार हुसैन और सूजा जैसे मशहूर चित्रकारोें की कलाकृतियों को भी होना पड़ा है।
हुसैन को तो उनकी देवी-देवताओं की न्यूड पेंटिग के कारण एक तरह से देश निकाला की सजा तक भुगतनी पड़ी। न्यूड को पूर्ण रूप से अश्लील मान लेना बेमानी ही लगती है। खासकर हमारे भारतीय समाज में जहां प्राचीन संस्कृति की पहचान के रूप में मंदिरों, गुफाओं या कंदराओं में व्याप्त देवी-देवताओं के नग्न चित्रों एवं मूर्तिकलाओं को भारी दिलचस्पी एवं श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में देख जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुजराहो का मूर्तिशिल्प तथा ऐतिहासिक कामसूत्र पर आधारित लघु चित्र हैं। गौरतलब बात है कि समाज का रूढि़वादी और कट्टरपंथी वर्ग भी इन्हें पूर्ण समर्थन के साथ भारतीय संस्कृति की धरोहर मानता रहा। ऐसे में आज के दौर में एक चित्रकार अपनी कलाकृति को न्यूड पेंटिग के रूप में पेश करता है तो रूढि़वादी और कट्टरवादी तत्वों द्वारा उसका विरोध अफसोसजनक के साथ हास्यास्पद भी लगता है।
पिछले दिनों पटना आर्ट काॅलेज के एक छात्र को उसके वार्षिक परिक्षा के प्रोजेक्ट के रूप में महाविद्यालय की एक महिला शिक्षिका द्वारा ऐतिहासिक मुगल तथा राजस्थानी शैली में लघु चित्रण का स्वतंत्र चित्रण करने के लिए कहा गया था। मगर जब छात्र ने कामसूत्र पर आधारित लघुचित्र की प्रस्तुति की तो महाविद्यालय के शिक्षकों द्वारा छात्र को परीक्षा में अनुतिर्ण कर दिया गया। महाविद्यालय के प्रचार्य का ेकहना था कि ”किसी भी छात्र द्वारा एक महिला शिक्षिका को इस तरह का अश्लील चित्र नहीं दिया जा सकता।” जबकि मुगल एवं राजस्थानी चित्रण शैली में पहले भी राजघरानों के निजी एवं अतरंग जीवन की प्रस्तुति होती रही है। अब इसके बावजूद जब किसी कला संस्था में ही कला पर रूढि़वादी सोच के कारण ऐसी घटना घटे तो वह कला की स्वतंत्रता पर एक गंभीर सवाल तो खड़ा करती ही है। भारतीय चित्रकार अर्पिता सिंह ने अपने एक इंटरव्यू में चित्रकला में न्यूड की जरूरत और समर्थन में अपनी बात रखते हुए कहा था कि ’मुझे न्यूड पेंटिग की जरूरत ऐसे हुई कि अगर कपड़े बनाओ तो उसके लिए रंग सोचना पड़ता है जो ब्रक पैदा करता है। मैं ब्रेक नहीं चाहती थी। मैं चाहती थी कि मैं उस शरीर को पूरा बना सकूं। इसलिए मुझे कोई जरूरत नहीं थी कि मैं एक और रंग से उसे ढ़ाप सकूं।’
बहरहाल, न्यूड पेंटिग में श्लीलता और अश्लीलता एक अलग बहस का मुद्दा है। मगर जिस रूप में आज कुछ कलाकार को बिकाऊ और बाजारू बनाकर बाजार में प्रोजेक्ट् के रूप में पेश कर रहे हैं उससे तो डोनाल्ड कुस्पिट की ”कला का अंत” वाली बात में दम तो दिखता ही है। मशहूर चित्रकार पिकासो ने कहा था कि ”कला में हम कुछ खोजते नहीं बल्कि पाते हैं।” मगर आज कला से कुछ पाने की जगह कला में बाजारीकरण को ढूंढा जा रहा है।
Sabse pehle to mai ye kahunga ki utkrishtha hai apki ye koshish lekho k prayog se ham sab ko vicharadhin kar dene ki....uske baad mai maafi chahunga kyuki mai hindi typing nhi kar pa rha hu....ab mere bhaw apke is lekh k prati kuchh aise apne shabdo me :
ReplyDeleteKala kalakaar ke andar chhupi ek rahasyamayi chitran hai , jise dikhane ke liye kalakaar ko kisi ki sahmati ya asahmati ki aawasyakta nhi parti hai...aur jaha tak iske bazarikaran ki batein hai to ise bazaar me le aane wale koi aur nhi ham jaise hi hai..iske mukhya kaarano me hamara apna swarthya chhipa dikhai deta hai....kahi aarthik tangi ek kalakaar ko majbur kar deti hai uske kalaon ko baazaar me lane ko to kahi kisi ko bahut lokpriya hone ka shaukh....baatein KALAATMAK SHRESHTHTA YA KALA KE ANT ki kare to "Na to kala ka ant kabhi hua tha , naahi kabhi ho payega , ha kalatmak shreshthata ki bat kare to Sir DONALD COOPIST ke The End Of Art ki ghatna me kalatmak shreshthata ko nhi pahchanne ka sahi udaharan diya gaya hai...kala ke mahatva ko na bhoolna hi hamari kalatmak shreshthata hai... kisi vidyarthi ko ye keh ke ki nude art diya hai usne , fail kar dena ye kaun si shreshthata hai..???? ha ye samajik roop se kahi kahi aaj sweekrit karne yogya nhi dikhaya jata..lekin iska matlab ye nhi hai ki us vidyarthi kalakaar ke kala ki shreshthata ko v maddenazarna rakha ajye aur use aswikrit kar diya jaye...agar sirf aisa hi tha tab kyu prachin kaal ke rajao ko poojate ho aap sab , kya wo log bharsth the jo aisi kalakritiyo ko apne maha ke deewaron pe sthaan dete the...kya wo vidwaan pandit jo ki us rajya sabha me hua karte the , wo v asabhya the..? mere in shabd roopi baan se pata nhi kaun aahat ho...lekin mai to bas itna hi jaanta hu ki : "KALA ITIHAASH ME V JEEWIT THI , AAJ BHI JEEWIT HAI , AUR KAL V JEEWIT RAHEGI "