सीता गलीः- इप्टा जेएनयू की प्रस्तुति
-इति शरण
'मुझसे मेरा संडास मत छीनो। संडास ही तो मेरी जिंदगी है।' एक औरत का रोते हुए, हारे हुए स्वर में ये बात कहना शायद विचित्र ही लगे। संडास, मैला, कचड़ा आखिर किसी की जिन्दगी कैसे हो सकती है। वह भी ऐसे समय में जब हम एक विकसित समाज में जीने की बात कहते हैं। मगर विकास के इस मायाजाल के पीछे आज भी एक ऐसा समाज है जहां मैला,संडास, कचड़ा लोगों की जिन्दगी का एक हिस्सा होता है। समाज की इस सच्चाई को हम चाह कर भी नकार नहीं सकते। कुछ इन्हीं सच्चाईयों को जेएनयू इप्टा ने 'सीता गली' नाटक की प्रस्तुति द्वारा सबके सामने लाने की कोशिश की। जो 'मैत्रीय पुष्पा' की रचना 'छुटकारा' का नाट्य रूपांतरण था। जेएनयू में चल रहे नाट्य समारोह 'रंगबयार' के अंतिम दिन 'मनीष श्रीवास्तव' के निर्देशन में 'सीता गली' नाटक के जरीए समाज में व्याप्त छूआछूत, जातिवाद आदि समस्याओं को सावर्जनिक करने की कोशिश की गई।
नाटक में जहां एक ओर मैला ढ़़ोने की प्रथा पर सवाल उठाया गया, वहीं छूआछूत जैसी सोच और मानसिकता पर भी हमला किया गया। जहां ऊंची जाति के समाज का ढ़ोग दिखाया गया हैं। खुद को सभ्य कहने वाले इस समाज की असभ्यता और अमानवीयता को दिखाया गया है। नाटक की शुरुवात ही छन्नो के घर बायना ना जाने से होती है। कहानी में मुख्य पात्र के रूप में छन्नो अपनी शादी के बाद से ही सीता गली में मैला और संडास उठाने का काम करती है। सीता गली को साफ सुथरा रखना ही उसके जीवन का जैसे एक लक्ष्य बन चुका हो। मगर अंत में उससे उसका वह रोजगार भी छीन लिया जाता है। क्योंकि गली में अब अंग्रेजी संडास, सेफटिक टैंक बनवा दिया जाता है। नाटक में दिखाया गया कि गली के कुछ लोग छन्नों को मानते जरूर हैं, मगर दूर से। जब वह सीता गली में ही मकान खरीद लेती है तब से ही शुरू होता है सारा तमाशा। जो औरत गली की सफाई के लिए अपनी सारी जिन्दगी लगा देती है, उसके ही गली में आने से गली वालों को गली के अशुद्ध होने की चिंता सताने लगती है। उसे बार-बार उसके मेहतरानी होने का अहसास दिलाया जाता है।
इसके साथ ही नाटक में जातिप्रथा पर भी पूरा हमला किया गया हैं। छन्नों के मेहतरानी होने के कारण उसकी बेटी से भी उम्मीद की जाती है कि वो भी मेहतरानी ही बने। समाज उसके दूसरे काम करने पर उसे ताने देता है, उसे गालियां परती है। मगर यहां छन्नो की बेटी रज्जो हिम्मती है, लोगों से डरती नहीं है। वह संडास का काम चले जाने से अपनी मां की तरह दुखी नहीं है। वो तो खुश है कि उसकी मां को अब संडास नहीं कमाना पड़ेगा। जिससे उसमें एक सकरात्मक सोच की झलक देखने को मिलती है।
इन सबसे परे यदि अभिनय की बात कही जाए तो लोगों की मिलिजुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। कुछ अभिनेताओं ने अपने पात्रों के साथ पूरा न्याय किया। मगर कुछ पात्रों की भूमिका में कलाकारों का अभिनय थोड़ा फि़का रहा। हालांकि कुल मिलाकर सभी कलाकारों की कोशिश अच्छी दिखी।
नाटक में सबसे बेहतरीन चीज गानों का समावेश और उसके द्वारा कहानी कहने का तरीका रहा। 'रंगबयार' में प्रस्तुत सभी नाटकों में जहां रिकाॅर्डेड गाने और संगीत का प्रयोग किया गया था। वहीं इप्टा के इस नाटक में कलाकारों द्वारा ही मंच पर गाने की प्रस्तुति नाटक को रोमांचक बनाने का काम कर रही थी। साथ ही गानें के बोल दृश्य को ज्यादा प्रभावशाली बना रहे थे। ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं ' जैसे मशहूर गीत के आगे ये कहना कि 'ये सब कहने की बात है, बस कहने की बात है' से ही साफ पता चल गया था कि यह नाटक समाज में व्याप्त असामानता की बात कहने वाला है।
नाटक में मुख्यतः 5 ऐक्ट की संरचना होती है। जिसे आज-कल 3-4 ऐक्ट के रूप में भी प्रस्तुत किया जाने लगा है। मगर 'मैत्रीय पुष्पा' की इस लघु कथा में उसका अलगाव है, जिसे एक नाटक के रूप में नहीं बल्कि एक कहानी के रूप में लिखा गया है। ऐसी कहानी को नाट्य रूप में ढालना बेशक मुश्किल काम माना जाएगा। मगर 'मनीष श्रीवास्तव' ने ना सिर्फ 'मैत्रीय पुष्पा' की इस रचना को नाट्यरूपांतरण में प्रस्तुत किया बल्कि कहानी के साथ पूरा न्याय भी किया। दर्शकों से भी निर्देशन को लेकर सबसे बेहतरीन प्रतिक्रिया देखनी को मिली।
नाटक की प्रस्तुति के अलावा अगर विषय की बात की जाए इस विषय के औचित्य पर एक बार सवाल जरूर उठता है। क्योंकि, यह माना जाने लगा है कि समाज में मैला ढोने की प्रथा लगभग खत्म हो चुकी है। मगर वास्तविकता इससे कुछ अलग है। आज भी कुछ इलाकों में मैला ढोने की प्रथा विद्यमान है। मगर इस विषय के निर्देशन के पीछे शायद सिर्फ मैला ढोने की प्रथा की समस्या सामने लाना ना होकर ऐसे कई समस्याओं पर सवाल उठाना था जो समाज को कलंकित करने का काम करती है, उसे एक संकुचित रूप प्रदान करती है।
-इति शरण
'मुझसे मेरा संडास मत छीनो। संडास ही तो मेरी जिंदगी है।' एक औरत का रोते हुए, हारे हुए स्वर में ये बात कहना शायद विचित्र ही लगे। संडास, मैला, कचड़ा आखिर किसी की जिन्दगी कैसे हो सकती है। वह भी ऐसे समय में जब हम एक विकसित समाज में जीने की बात कहते हैं। मगर विकास के इस मायाजाल के पीछे आज भी एक ऐसा समाज है जहां मैला,संडास, कचड़ा लोगों की जिन्दगी का एक हिस्सा होता है। समाज की इस सच्चाई को हम चाह कर भी नकार नहीं सकते। कुछ इन्हीं सच्चाईयों को जेएनयू इप्टा ने 'सीता गली' नाटक की प्रस्तुति द्वारा सबके सामने लाने की कोशिश की। जो 'मैत्रीय पुष्पा' की रचना 'छुटकारा' का नाट्य रूपांतरण था। जेएनयू में चल रहे नाट्य समारोह 'रंगबयार' के अंतिम दिन 'मनीष श्रीवास्तव' के निर्देशन में 'सीता गली' नाटक के जरीए समाज में व्याप्त छूआछूत, जातिवाद आदि समस्याओं को सावर्जनिक करने की कोशिश की गई।
नाटक में जहां एक ओर मैला ढ़़ोने की प्रथा पर सवाल उठाया गया, वहीं छूआछूत जैसी सोच और मानसिकता पर भी हमला किया गया। जहां ऊंची जाति के समाज का ढ़ोग दिखाया गया हैं। खुद को सभ्य कहने वाले इस समाज की असभ्यता और अमानवीयता को दिखाया गया है। नाटक की शुरुवात ही छन्नो के घर बायना ना जाने से होती है। कहानी में मुख्य पात्र के रूप में छन्नो अपनी शादी के बाद से ही सीता गली में मैला और संडास उठाने का काम करती है। सीता गली को साफ सुथरा रखना ही उसके जीवन का जैसे एक लक्ष्य बन चुका हो। मगर अंत में उससे उसका वह रोजगार भी छीन लिया जाता है। क्योंकि गली में अब अंग्रेजी संडास, सेफटिक टैंक बनवा दिया जाता है। नाटक में दिखाया गया कि गली के कुछ लोग छन्नों को मानते जरूर हैं, मगर दूर से। जब वह सीता गली में ही मकान खरीद लेती है तब से ही शुरू होता है सारा तमाशा। जो औरत गली की सफाई के लिए अपनी सारी जिन्दगी लगा देती है, उसके ही गली में आने से गली वालों को गली के अशुद्ध होने की चिंता सताने लगती है। उसे बार-बार उसके मेहतरानी होने का अहसास दिलाया जाता है।
इसके साथ ही नाटक में जातिप्रथा पर भी पूरा हमला किया गया हैं। छन्नों के मेहतरानी होने के कारण उसकी बेटी से भी उम्मीद की जाती है कि वो भी मेहतरानी ही बने। समाज उसके दूसरे काम करने पर उसे ताने देता है, उसे गालियां परती है। मगर यहां छन्नो की बेटी रज्जो हिम्मती है, लोगों से डरती नहीं है। वह संडास का काम चले जाने से अपनी मां की तरह दुखी नहीं है। वो तो खुश है कि उसकी मां को अब संडास नहीं कमाना पड़ेगा। जिससे उसमें एक सकरात्मक सोच की झलक देखने को मिलती है।
इन सबसे परे यदि अभिनय की बात कही जाए तो लोगों की मिलिजुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। कुछ अभिनेताओं ने अपने पात्रों के साथ पूरा न्याय किया। मगर कुछ पात्रों की भूमिका में कलाकारों का अभिनय थोड़ा फि़का रहा। हालांकि कुल मिलाकर सभी कलाकारों की कोशिश अच्छी दिखी।
नाटक में सबसे बेहतरीन चीज गानों का समावेश और उसके द्वारा कहानी कहने का तरीका रहा। 'रंगबयार' में प्रस्तुत सभी नाटकों में जहां रिकाॅर्डेड गाने और संगीत का प्रयोग किया गया था। वहीं इप्टा के इस नाटक में कलाकारों द्वारा ही मंच पर गाने की प्रस्तुति नाटक को रोमांचक बनाने का काम कर रही थी। साथ ही गानें के बोल दृश्य को ज्यादा प्रभावशाली बना रहे थे। ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं ' जैसे मशहूर गीत के आगे ये कहना कि 'ये सब कहने की बात है, बस कहने की बात है' से ही साफ पता चल गया था कि यह नाटक समाज में व्याप्त असामानता की बात कहने वाला है।
नाटक में मुख्यतः 5 ऐक्ट की संरचना होती है। जिसे आज-कल 3-4 ऐक्ट के रूप में भी प्रस्तुत किया जाने लगा है। मगर 'मैत्रीय पुष्पा' की इस लघु कथा में उसका अलगाव है, जिसे एक नाटक के रूप में नहीं बल्कि एक कहानी के रूप में लिखा गया है। ऐसी कहानी को नाट्य रूप में ढालना बेशक मुश्किल काम माना जाएगा। मगर 'मनीष श्रीवास्तव' ने ना सिर्फ 'मैत्रीय पुष्पा' की इस रचना को नाट्यरूपांतरण में प्रस्तुत किया बल्कि कहानी के साथ पूरा न्याय भी किया। दर्शकों से भी निर्देशन को लेकर सबसे बेहतरीन प्रतिक्रिया देखनी को मिली।
नाटक की प्रस्तुति के अलावा अगर विषय की बात की जाए इस विषय के औचित्य पर एक बार सवाल जरूर उठता है। क्योंकि, यह माना जाने लगा है कि समाज में मैला ढोने की प्रथा लगभग खत्म हो चुकी है। मगर वास्तविकता इससे कुछ अलग है। आज भी कुछ इलाकों में मैला ढोने की प्रथा विद्यमान है। मगर इस विषय के निर्देशन के पीछे शायद सिर्फ मैला ढोने की प्रथा की समस्या सामने लाना ना होकर ऐसे कई समस्याओं पर सवाल उठाना था जो समाज को कलंकित करने का काम करती है, उसे एक संकुचित रूप प्रदान करती है।
An honest and sincere attempt. The theme has been brought about well but could have incorporated more aspects on the technical front.
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