Friday, September 7, 2012

बोतलबंद पानी और भारत सरकार की ठाकुरगिरी!


बोतलबंद पानी और भारत सरकार की ठाकुरगिरी!
-सुमन्त
    यह देख बेहद आश्चर्य हुआ कि वित्त मंत्रालय में  अपने तबादले के कुछ ही दिनों पहले गृह मंत्री के रूप में पी. चिदंबरम् जो कि अपेक्षाकृत शालीन और संतुलित वक्तव्यों के लिए जाने जाते हैं, ने देश के खाये पिये अघाये मध्यवर्ग के लोगों के एक लिजलीजेपन पर जर्बदस्त प्रहार किया। उन्होंने कहा कि यह मध्यवर्ग बोतलबंद पानी या शीतल पेयों पर तो पानी की तरह पैसा बहा सकता है लेकिन अन्य आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं पर दो-एक रुपये की भी मूल्यवृद्धि को लेकर चिल्ल पो मचाने लगता है। हालांकि खाने-पीने तथा रोजमर्रे की आवश्यक वस्तुओं में मूल्यवृद्धि की मार न केवल मध्यवर्ग पर बल्कि उससे अधिक निम्न एवं वंचित वर्ग के विशाल समुदाय पर पड़ती है। लेकिन पी. चिदंबरम ने मध्यवर्ग की जिस प्रकृति/प्रवृत्ति की बखिया उधेड़ी है वह अपनी जगह सही तो है ही- बल्कि यह इस मामले में ज्यादा ध्यान देने लायक है कि मध्यवर्ग पर यह चोट वर्गीय राजनीति की बात करने वाले किसी वामपंथी या अति वाम क्रांतिकारी नेता ने नहीं की है। यह चोट तो एक ऐसे बुर्जुआ या सुधारवादी नेता की ओर से हुई है जो खुद मध्यवर्ग के लोगों के लिए एक आदर्श या हीरो जैसा दर्जा रखता है!

    मध्यवर्ग की यह प्रवृत्ति या प्रकृति है क्या? आम तौर पर मध्यवर्ग को एक आत्ममुग्ध और अति महत्वाकांक्षी समुदाय के रूप में जाना जाता है। वह स्वप्नों में जीता है। स्वप्न यह कि वह जो देखता है कि समाज में एक अत्यंत मगर मुट्ठी भर संपत्तिशाली या कहें कि शक्तिसंपन्न वर्ग भोग-विलास के उन तमाम  अतियों का खुला आनंद लेे रहा है जो उसकी कल्पना से भी परे है तो उस कल्पनातीत स्थिति तक पहुंचने का हकदार वह खुद क्यों नहीं हो सकता? वह अपनी सारी चतुराई, अपना सारा पराक्रम उसी कल्पनातीत आनंद की प्राप्ति के लिए झोंक देता है। प्राप्त तो कर पाता नहीं मगर सारी जिंदगी वह उसी प्राप्ति का स्वप्न देखते बिता देता है। वह समाज के समक्ष चुनौतियों से कतराता है, समाज परिवर्तन की खातिर कैसी भी लड़ाई में जाने से मुंह चुराता है, वह खुद अपने वर्ग के हित के लिए भी किसी सामूहिक संघर्ष की बात से साफ बिदकता है। दरअसल उसके सामने जो आदर्श परोसे जाते हैं, उसमें बताया यह जाता है कि चरम विलासी जीवन व्यतीत करने वाले आज के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे जो लोग हैं वे हमेशा से ही ऐसे नहीं थे। उनके बाप-दादा या तो कबाड़ी का धंधा करने वाले थे या कोई मामूली चाकरी करने वाले। मगर उन्होंने अपने निजी कौशल से ऐसा चमत्कार पैदा किया कि नतीजा के तौर पर उनका यह विशाल पारिवारिक साम्राज्य आज खड़ा दीख रहा है। यदि तुम्हें भी कोई ऐसा ही पारिवारिक साम्राज्य खड़ा करने की चाहत है तो उसकी गारंटी हो सकती है वह चमत्कार जिसे सिर्फ और सिर्फ अपने निजी कौशल या चतुराई से उत्पन्न किया जा सकता है। आज प्रायः पूरे मध्यवर्ग का मूलमंत्र ही हो गया है कि अपनी हालात बदलने के लिए बस निजी चमत्कार उत्पन्न करने में लगे रहो। समाज के लफड़ों यानी आंदोलनों/संघर्षों से जितना दूर रह सको रहो। यदि वह अन्ना हजारे के आंदोलन में अपनी हिस्सेदारी निभा रहा है तो इसलिए नहीं कि समाज परिवर्तन में उसकी कोई दिलचस्पी है। वह तो शासन/सत्ता के उस भ्रष्ट आचरण से इसलिए नाराज है जिसके चलते वह समाज के शीर्ष पर पहुंचने की अपनी लालसा या सपनों को भी ध्वस्त होते देख रहा है।
    वह पेट्रोल पर बढ़े दामों से इसलिए नाराज है कि अपनी छोटी गाडि़यों का अधिक से अधिक आंनद ले पाने में अब उसका हाथ जलने लगा है, वह रोजमर्रा के अन्य आवश्यक वस्तुओं में मूल्यवृद्धि से इसलिए तिलमिला उठता है कि वह अब उन विलासी वस्तुओं पर उतना खर्च नहीं कर सकता है जितना वह पहले करता था। लेकिन महंगे शीतल पेयों या बोतलबंद पानी पीने से कोई परेशानी इसलिए नहीं होती कि उनके इस्तेमाल से उसे अपने से ऊपर वालों की विलासी आदतों में शामिल होने की एक आत्मगौरव जैसी अनुभूति प्राप्त होती है।
    लेकिन हकीकत यह है कि चिदंबरम साहब ने जितनी मासूमियत से यह तल्ख बयान दिया है, उतने मासूम वह लगते हैं नहीं। महंगे बोतलबंद पानी की हकीकत है क्या? आज की तारीख में क्या उन्हें इसे खाया पीया अघाया मध्यवर्ग ही पीता हुआ नजर आता है? वे यदि भारत में चलनेवाली लंबी दूरी की ट्रेनों खासतौर पर उत्तर भारत की ट्रेनों में कभी चढ़ने का जहमत उठायें तो उन्हें देखकर दंग रह जाना पड़ेगा कि उनमें सफर करनेवाले गैर वातानुकूलित या सामान्य डिब्बों के अधिकांश निम्नवर्गीय यात्री भी भारी संख्या में बोतलबंद पानी पीते नजर आयेंगे। मगर चिदंबरम साहब, आप यह न समझों कि अल्प कमाई करने वाले निम्नवर्ग के ये लोग बोतलबंद पानी खरीद कर इसलिए पीते हैं कि आपकी सरकार की आर्थिक नीतियों ने उन्हें समृद्धि के किसी पावदान पर चढ़ा दिया है। यह तो उनकी भारी विवशता है और उनकी यह विवशता भी आपकी सरकार की गरीबों को और गरीब बनाने वाली घोर जनविरोधी नीतियों की ही देन है। यह जानकर आपको ताज्जुब होगा कि कुछ मुख्य स्टेशनों को छोड़कर अब शायद ही किन्हीं स्टेशनों पर सार्वजनिक जलापूर्ति की व्यवस्था दुरुस्त रह गयी है या उन्हें रहने दी गयी है। इन पंक्तियों के लेखक को अभी हाल ही में इस अनुभव से बुरी तरह गुजरना पड़ा जब वह दिल्ली से आज की एक लचर मगर किसी जमाने की नामी गिरामी ट्रेन तूफान एक्सप्रेस से पटना वापस लौट रहा था। यह ट्रेन दिल्ली से चलकर पटना पहुंचने में पूरे 24 घंटे लगाती है- यदि समय पर रही तो। भारी गर्मी थी। गैर वातानुकूलित डिब्बे जिनमें सामान्य टिकट वाले या लोकल पैसेंजरों की भी भारी भीड़ घुसी रहती है, तपकर भट्टी हुए जा रहे थे। दिल्ली से ट्रेन खुलने से पहले हमने अपनी बोतलों में वहीं से पानी भर लिये थे। लेकिन तपते डिब्बों में एक बोतल पानी की बिसात ही क्या है? देखते-देखते कुछ ही स्टेशनों के बाद प्रायः सभी यात्रियों की बोतलें सूखी नजर आने लगीं। कई स्टेशनों पर ट्रेन रूकी लेकिन प्लेटफार्म पर मुश्किल से पानी उगलते कोई नल दिखता भी तो उस पर टूट पड़ने वाली भीड़ को देखकर रूह कांप उठती। मुश्किल से एकाध दर्जन यात्री ही पानी भरने में कामयाब हो पाते थे। अधिकांशतः तो ट्रेन के अंदर बोतलबंद पानी बेचने वाले वैध-अवैध भेंडरों से एक-एक बोतल के 20-20 रु. तक की कीमत चुकाकर पानी पीने को लाचार थे।
    लेकिन प्रश्न यह है कि देश के निम्नवर्ग के लोगों को भी बोतलबंद पानी पीने के लिए आखिर विवश कौन कर रहा है? स्टेशनों से सार्वजनिक जलापूर्ति की व्यवस्था को आखिर इस कदर ध्वस्त कौन कर रहा है?
    मगर इस सवाल का जवाब पाने से पहले एक और बेहद चैका देने वाले तथ्य की ओर भी क्यों न नजर दौड़ा ली जाये! अभी मुश्किल से माह डेढ़ माह पहले भारत सरकार ने निर्णय लेकर अंग्रेजों के जमाने के कुछ कानूनों को निरस्त कर दिया है। उनमें से एक है पानी से संबंधित कानून। आम तौर पर अंग्रेजों के बनाये काले कानूनों को खत्म करने या बदलने की मांग प्रायः सभी राजनीतिक हलकों में उठायी जाती है और जब सरकार इस दिशा में कोई कदम उठाती है तो उसे भारी समर्थन भी मिलता हैं। इसीलिए यह मानकर कि केन्द्र सरकार ने अंग्रेजों के बनाये कुछ कानूनों को निरस्त कर दिया है तो वह लोकहित में लिया गया निर्णय ही होगा, शायद कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं हुई। मीडिया ने भी उसकी कोई खास नोटिस नहीं लेते हुए उसे बहुत मामूली जगह दी। मगर पानी संबंधी अंग्रेजों के बनाये उस कानून को जानने और उसे आज के समय में ही निरस्त करने के भारत सरकार के निर्णय को ध्यान से देखने के बाद तो पूरा मामला ही आम आदमी के खिलाफ एक भारी षड़यंत्र सा लगने लगा है। पानी संबंधी अंग्रेजों का बनाया कानून यह था कि होटलों, सरायों, ढाबों आदि में यदि कोई ग्राहक जाता है तो वहां उसे पीने के लिए मुफ्त पानी की व्यवस्था होनी चाहिये। ग्राहकों को पानी की यह मुफ्त सेवा प्रदान नहीं करने पर मालिकों के खिलाफ जुर्माना और सजा का भी कानूनी प्रावधान था। अब भला अंग्रेजों के बनाये इस कानून को भी काले कानून के दर्जा में रखा जा सकता है क्या? जाहिर है, मंद से मंद बुद्धि वाला कोई व्यक्ति भी इसके जवाब में कह उठेगा- ‘बिल्कुल नहीं।’
    लेकिन लेकिन घोर आश्चर्य कि भारत सरकार ने कुछ अन्य काले कानून के साथ आम आदमी को मुफ्त पानी के अधिकार से लैस करने वाले अंग्रेजों के बनाये इस जबर्दस्त कल्याणकारी कानून को भी बड़े शातिराना ढंग से रद्द कर डाला। इस फैसले में जाहिर है एक वरिष्ठ मंत्री होने के नाते चिदंबरम साहब, स्वयं शामिल रहे होंगे। इस फैसले की जानकारी पता नहीं अभी कितनों तक पहुंच पायी होगी मगर यह तो तय है कि इस निर्णय से एक ही झटके में सैकड़ों सालों से मिले होटलों, सरायों, ढाबों आदि में मुफ्त पानी पीने के अधिकार से ग्राहकों को साफ वंचित कर दिया गया है। जाहिर है, खाने के साथ-साथ ग्राहकों को अब पानी के दाम भी चुकाने पड़ेगे। बड़े होटलों को यदि छोड़ भी दिया जाये तो छोटे होटलों तथा ढाबों आदि में जाकर खाना खाने वाले विशाल ग्राहक होते कौन हैं- आम तौर पर शहर में बसर करने वाले निम्नवर्ग अथवा निम्न मध्यवर्ग के लोग ही न? साफ है, इस फैसले के पीछे भारत सरकार की मंशा यह है कि देश में एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाये जिससे विशाल आबादी वाले निम्न वर्ग के लोगों को भी प्यास बुझाने के लिए बोतलबंद पानी खरीदने की अनिवार्यता की ओर धकेला जा सके। भारत सरकार के स्वामित्व वाले रेलवे स्टेशनों से भी सार्वजनिक जलापूर्ति की व्यवस्था को प्रायः ध्वस्त किये जाने के कारक को इसी कड़ी में देखा जाना चाहिये।
    यहां उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की एक बहुपठित कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ की याद आती है। बताने की जरूरत नहीं कि प्रेमचंद ने इस कहानी में गांव के स्वच्छ पानी के एक प्राकृतिक स्रोत अर्थात् ठाकुर के कुआं से पानी लेने के अधिकार से वंचित अछूतों की मर्मांतक पीड़ा की कैसी रचना की है। उस अछूत स्त्री को आधी रात में चोरी छिपे भी ठाकुर के कुएं से साफ पानी नहीं निकाल पाने की मजबूरी में अंततः अपने बीमार पति को गंदे कुएं का विषाक्त पानी ही पिलाना पड़ा जिसे पीकर उसके पति को अपनी जान गंवानी पड़ी। पानी को लेकर भारत सरकार का रवैया और आज का पूरा परिदृश्य किस बात की ओर इशारा करता है? देश में पानी के प्राकृतिक स्रोतों पर शीतल पेयों का व्यापार करने वाली साम्राज्यवादी देशों की भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा उनके देशी पिछलग्गु कंपनियों का जिस तरह शनैः शनैः अधिकार होता जा रहा है, उससे प्रेमचंद की कहानी के ठाकुर के घृणतम कृत्य की पुनर्रचना होती दीख नहीं पड़ती है क्या? प्रेमचंद का ठाकुर तो गांव के अपने एक कुएं से अछूतों को वंचित करने का अपराध करता जान पड़ता है, लेकिन भारत सरकार के इस देश के प्राकृतिक जलस्रोतों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों बेचे जाने के कुकृत्य से तो आज स्वच्छ प्राकृतिक पानी प्राप्त करने के अधिकार से करोड़ों लोगों के वंचित हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। हमने सुना है कि इन भीमकाय बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भूमिगत जलस्रोतों के अतिशय दोहन के चलते देश के कई ग्रामीण अंचलों में पानी या तो विषाक्त हो चला है या सूख चले हैं। इस तरह देखा जाये तो देश की करोड़ों ग्रामीण जनता को एक तरह से उनके कुओं, तालाबों आदि के स्वच्छ प्राकृतिक पानी से कब का वंचित कर दिया गया है। और अब बारी है शहरी निम्नवर्ग के लोगों की। भारत सरकार ने रेलवे जैसे सार्वजनिक स्थानों से पानी की व्यवस्था को ध्वस्त  किये जाने को एक तरह से मंजूरी देकर और फिर मुफ्त पानी प्राप्त करने के आमजन के अधिकार संबंधी अंग्रेजों के बनाये एक निहायत कल्याणकारी कानून को भी रद्द करके इस विशाल शहरी निम्नवर्ग पर कुल्हाड़ी तो चला ही दी है।
    स्पष्टतः, भारत सरकार आज प्रेमचंद के ठाकुर को अपने सामने लाख गुणा क्षुद्र साबित करते हुए एक अलग तरह की क्रूरता से भरपूर अति भयावह ठाकुर के रूप में करोड़ों भारतीय जन के जीवन को विषाक्त बनाने की भूमिका में उतर आयी है- उन्हें स्वच्छ प्राकृतिक पानी पीने के उनके अधिकार से वंचित करते हुए। और भारत सरकार यह ठाकुरगिरी कर किसके इशारे पर रही है? इस बात का जवाब तो सरकार में एक सबसे शक्तिशाली मंत्री के रूप में बैठे चिदंबरम साहब ही भलीभांति दे सकते हैं जिन्होंने बोतलबंद पानी की बात छोड़कर अनायास ही सही, भारत सरकार की ठाकुर वाली भूमिका को एकदम से बेपर्द कर दिया है। चिदंबरम साहब ही बता सकते हैं कि आज उनकी सरकार साम्राज्यवादी देशों की सरकारों और उनकी भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे किस हद तक नतमस्तक हो गयी है! बोतलबंद पानी बेचने वाली भीमकाय कंपनियों ने भारत सरकार को फटकारते हुए कहा होगा-‘‘ठाकुर, यदि तेरी जनता झीलों, तालाबों, कुओं और सार्वजनिक जलापूर्ति की सरकारी व्यवस्था से यूं ही मुफ्त में पानी पाती रही तो हमारे बोतलबंद पानी को खरीदकर क्या तेरे मवेशी पियेगें? हमारे धंधे को चैपट होने से बचाने के लिए कुछ तो कर! और नहीं तो अपने उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के ठाकुर से ही सीख ले।’’ भारत सरकार ने परम आज्ञाकारी दास की तरह सिर झुकाये हामी भरी होगी-‘‘जी, माई बाप! आपके मुनाफे के लिए हम कुछ करेंगे न।’’
    और भारत सरकार जिस तत्परता से ‘कुछ’ करने पर उतर आयी है, उसका वीभत्स प्रकटीकरण एक तरह से पी. चिदंबरम के वक्तव्य से तो हो ही जा रहा है।

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