Thursday, October 11, 2012

कभी गुम नहीं हो सकेगी 'बानी दी की आवाज़'

            कभी गुम नहीं हो सकेगी 'बानी दी की आवाज़'
                                                                                                                                 - इति शरण

‘हल्की सी मुस्कान के साथ एक गंभीर भाव का चित्रण‘ । वह गंभीरता खुद के जीवन की कड़वी वास्तविकता के लिए नहीं बल्कि समाज में शोषित  और कमजोर वर्गो की चिंता के लिए थी। कुछ ऐसी छवि थी हमारी बानी दी की। "हमारी" इसलिए कहा क्योंकि बानी दी ने अपना पूरा जीवन दूसरों के लिए ही समर्पित कर दिया। खुद के जीवन की जटिलताओं को कभी सुलझाने की कोशिश  तक नहीं की, मगर लोगों की समस्याओं से जीवन के हर मोड़ पर विचलित होती रही। बानी की बातों में मानो कुछ जादू सा था। किसी को भी पल भर में अपना बना लेना तो मानो उनके बांय हाथ का काम था। शायद तभी उनके याद में एकत्रित सभी लोगों की आंखें उनके साथ बिताए पलों को याद करके नम हो गई। शनिवार को भारतीय महिला फेडरेसन के ऑफिस  में बानी दी के शोक समारोह में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को याद किया गया।
बानी दी आजादी की लड़ाई की नायिका के साथ-साथ भारतीय महिला फेडरेसन की उपाध्यक्ष भी रही थी और हर मोड़ पर भारतीय महिला फेडरेसन की लड़ाई में उनके साथ खड़ी रही। हर रोज भारतीय महिला फेडरेसन के आॅफिस में सुबह 10 बजे पहुंचना  और शारीरिक  रूप से अस्वसथ होने के बावजूद फेडरेसन के सभी कामों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने का मानो उनमें एक जोश  सा होता था।
बानी दी का जीवन हमेशा संघर्षो  से घिरा रहा। हमारे समाज की मानो एक पंरपरा सी बन चुकि है कि दूसरो के कल्याण के संघर्ष  के लिए आवाज उठाने पर आपको संघर्ष  के पुलिंदो से घेर दिया जाता है। बानी दी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। आजादी की लड़ाई और कमुनिस्ट  पार्टी से जुड़ने के कारण  उनके परिवार में खासकर उनके अंकल ने इसका कड़ा विरोध किया। उस वक्त बानी दी के पास दो रास्ते थे या तो आजादी के सारे संघर्शो और कमुनिस्ट  पार्टी से नाता तोड़ दे या फिर परिवार को पीछे  छोड़ लोगो के कल्याण और संघर्ष  की लड़ाई में आगे बढ़े। बानी दी बिना किसी डर और बिना अपने भविष्य की सोचे समाजिक कल्याण की लड़ाई के लिए अपना घर छोड़ कलकत्ता की अनजान सड़को की ओर बढ़ चली। सिर्फ एक जोड़ी कपड़े के साथ कलकत्ता जैसे शहर में एक अकेली लड़की का पहुंचना कोई छोटी बात नहीं थी। मगर बानी दी को कभी अपनी फीक्र रही ही कहां। वो तो बस दूसरे के लिए जीना जानती थी। फिर क्या, बिना पीछे मुड़े वो जीवन की एक नई शुरूआत में लग गई। इसी क्रम में बानी दी पहले  छात्र संगठन से जुड़ी और आगे चलकर महिला आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। महिला आत्मरक्षा समिति के नेतृत्व में उन्होने आजादी की लड़ाई में अपनी अहम भूमिका निभाई, जिसमें वह कई बार भूमिगत भी हुई और जेल भी गई। साथ ही 1943 में बंगाल में आए भीषण अकाल के समय भी वह आम लोगो की मदद के लिए उनके साथ खड़ी रही।
भारतीय महिला फेडरेसन के साथ उन्होने ना सिर्फ महिलाओं के शोषण  के खिलाफ लड़ाई लड़ी बल्कि महिलाओं को जागरूक करते हुए हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने की भी ओर भी काम किया। इसी क्रम में भारतीय महिला फेडरेसन के साथ मिलकर महिलाओं को साक्षर करने का अभियान चलाया जिसमें वो लोगो के बीच जा जा कर उन्हें साक्षर किया । इस दौरान इन सब ने मिलकर एक साल में ढ़ाई लाख महिलाओं को साक्षर करने में भी कामयाबी हासिल की। जिसमें बानी दी की एक अहम भूमिका रही।
भारतीय महिला फेडरेसन  के आॅफिस में बानी दी की याद में एकत्रित सभी लोगों ने बानी दी के साथ बिताए दिनों को याद करके लोगों के साथ उसे साझा किया। जिसमें प्रमुख रूप से सरला जी, हमीदा हबीबुल्लाह जी, प्रमिला लुम्बा और फेडरेसन की कार्यकारी अध्यक्ष गार्गी चक्रवर्ती ने अपनी बात रखी। हमीदा जी और गार्गी दी ने बताया कि किस तरह बानी दी हमेशा  लोगो को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती थी। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए फेडरेसन की महासचिव ऐनी राजा ने भी बानी दी की यादों से लोगों को जोड़ने का काम किया। 1923 में बरीसाल (बंगलादेश) में जन्मी  बानी दी इस साल 4 अगस्त को हमारे बीच से तो चली गई मगर हमारी यादों से तो शायद ही वो कभी जा सकेगी।

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