Wednesday, April 16, 2014

देश के हर कोने में है 'छन्नों'

                                    देश के हर कोने में है 'छन्नों'
                                                                                                                                        -इति शरण

'मुझसे मेरा संडास मत छीनो। संडास ही तो मेरी जिंदगी है।' एक औरत का रोते हुए, हारे हुए स्वर में ये बात कहना शायद विचित्र ही लगे। संडास, मैला, कचड़ा आखिर किसी की जिन्दगी कैसे हो सकती है। वह भी ऐसे समय में जब हम एक विकसित समाज में जीने की बात कहते हैं। मगर विकास के इस मायाजाल के पीछे आज भी एक ऐसा समाज है जहां मैला, संडास, कचड़ा लोगों की जिन्दगी का एक हिस्सा होता है। और उन लोगों को हीन दृष्टि का सामना करना पड़ता है। कुछ इन्हीं सच्चाईयों को जब जेएनयू इप्टा ने ‘सीता गली‘ नाटक की प्रस्तुति द्वारा सबके सामने लाने की कोशिश की तब मेरे सामने बचपन की कुछ तस्वीरें आ गई। जहां मैनें खुद ऐसी घटनाओं को घटित होते देखा था। बात उस वक्त की है जब मैं स्कूल में पढ़ा करती थी। मेरी एक सहपाठी को सिर्फ इसलिए नीची और हीन दृष्टि का सामना करना पड़ता था क्योंकि वह 'डोम' कहे जाने वाले जाति से ताल्लुक रखती थी।  हमारी शिक्षिका भी कई बार उसके पुराने और गंदे कपड़ों को निशाना बनाते हुए उसे उसके नीची जाति से होने का ताना दिया करती थी। जबकि उसके पुराने और गंदे कपड़ों का कारण उसकी जाति नहीं बल्कि उसकी गरीबी थी। कक्षा के बाकि लोग उसके साथ बैठने या खाने से परहेज करते थे।

'इप्टा' के इस नाटक में मैनें उन सभी घटनाओं को एक बार फिर देखा। जहां नाटक की मुख्य पात्र में मुझे मेरी सहपाठी नज़र आई। प्रस्तुत नाटक 'मैत्रीय पुष्पा' की रचना छुटकारा का नाट्य रूपांतरण था। जेएनयू में चल रहे नाट्य समारोह 'रंगबयार' के अंतिम दिन 'मनीष श्रीवास्तव' के निर्देशन में 'सीता गली' नाटक के जरीए समाज में व्याप्त छूआछूत, जातिवाद आदि समस्याओं को सावर्जनिक करने की कोशिश की गई थी। जहां ऊंची जाति के समाज का ढ़ोग दिखाया गया था। खुद को सभ्य कहने वाले इस समाज की असभ्यता और अमानवीयता को दिखाया गया था। नाटक की शुरुवात ही छन्नो के घर बायना ना जाने से होती है। कहानी में मुख्य पात्र के रूप में छन्नो अपनी शादी के बाद से ही सीता गली में मैला और संडास उठाने का काम करती है। सीता गली को साफ सुथरा रखना ही उसके जीवन का जैसे एक लक्ष्य बन चुका हो। नाटक में दिखाया गया कि गली के कुछ लोग छन्नों को मानते जरूर हैं, मगर दूर से। जब वह सीता गली में ही मकान खरीद लेती है तब से ही शुरू होता है सारा तमाशा। जो औरत गली की सफाई के लिए अपनी सारी जिन्दगी लगा देती है, उसके ही गली में आने से गली वालों को गली के अशुद्ध होने की चिंता सताने लगती है।

छन्नों के मेहतरानी होने के कारण उसकी बेटी से भी उम्मीद की जाती है कि वह भी मेहतरानी ही बने। समाज उसके दूसरे काम करने पर उसे ताने देता है, उसे गालियां परती है। मगर यहां छन्नो की बेटी रज्जो हिम्मती है, लोगों से डरती नहीं है। वह संडास का काम चले जाने से अपनी मां की तरह दुखी नहीं बल्कि खुश है कि, उसकी मां को अब संडास नहीं कमाना पड़ेगा। जिससे उसमें एक सकरात्मक सोच की झलक देखने को मिलती है। वास्तविक जीवन में भी ऐसी ही सोच की जरूरत है। जिससे समाज का वह शोषित वर्ग इस भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठा सके।

हम अगर अपने आस-पास नज़र घुमाये तो ऐसी कई छन्नों और रज्जो मिल जाएगी। लेकिन हम अकसर इन घटनाओं को अनदेखा कर देते हैं। उस स्थिति में ये नाटक हमारे सामने सवाल तो जरूर खड़ा करता है। इंसानीयत का सवाल, मानवता का सवाल और ना जाने कितने ही सवाल जो हमें एक बार सोचने पर जरूर मजबूर करता है।

इस विषय के निर्देशन के पीछे शायद सिर्फ मैला ढोने की प्रथा की समस्या सामने लाना ना होकर ऐसे कई समस्याओं पर सवाल उठाना था जो समाज को कलंकित करने का काम करती है, उसे एक संकुचित रूप प्रदान करती है।

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