क्रूरता के बीच जीवित संवेदनशीलता
-इति शरण
जीवन की व्यस्तता और उसके एक सामान्य निश्चित क्रम में चलने से कभी-कभी हम समाज की सच्चाई को अनदेखा कर देते हैं। कभी तो हम जानबूझ कर उस कड़वी सच्चाई पर परदा डाल देते हैे या फिर हमें ऐसा करने पर मजबूर किया जाता है। मेरा जीवन भी कुछ इसी क्रम में चल रहा था। हां, ये भी कहा जा सकता है कि शायद मैं उम्र के उस पराव में नहीं पहुंची थी जो समाज के खुदगर्ज और वीभस्त रूप को समझ पाती। बहरहाल, रोज की तरह उस दिन भी मैं लेट से स्कूल पहुंची थी। खैर, स्कूल तो पहुंची मगर स्कूल के बाहर का नजारा कुछ और ही बंया कर रहा था। वास्तविकता क्या थी पता नहीं। उस दृश्य के पीछे की कहानी को जानने का वक्त भी नहीं था। टीचर के गुस्से भरे चेहरे की कल्पना के आगे वास्तविकता को जानने का कौतुहल तो जैसे भाग खड़ा हुआ। भागते-भागते क्लास में पहुंची, तो वहां भी मिज़ाज कुछ बदला-बदला सा था। मुझे बताया गया कि कल रात एक औरत को स्कूल के पास पड़े कचरे के ढेर में कोई बिलकुल नग्न अवस्था में छोड़ कर, बल्कि फेंक कर चला गया है। तब से वह तमाशा बनी हुई है। आखिर क्यों और किसने ऐसी अअवस्था में उसे छोड़ दिया ? क्या वह अनाथ है, या इसके घर वालों ने जान-बूझकर अनाथ बनाकर ऐसी निर्दयतापूर्ण और विभत्सपूर्ण ढ़ग से अलग करने की साजि़श रची है। इसका जवाब किसी के पास नहीं था।
बहरहाल स्कूल की छुट्टी होते ही मैं भी स्कूल के बाहर उस कचरे के ढेर के पास पहुंची। उस दृश्य को मैं आज तक नहीं भूल पाई हूं। फटे चिथड़े से एक कपड़े से खुद के नग्न तन को ढंकने की कोशिश में लगी वह स्त्री संपूर्ण मानवता को धिक्कारते हुई प्रतीत हो रही थी। उस दिन मालूम हुआ हमारे समाज में दया नाम की चीज शायद सोने-चाॅंदी से भी मंहगी है। अधमरी अवस्था में पड़ी उस स्त्री को लोग तमाशे की तरह देखते और अपने रास्ते चल पड़ते। कोई ना उसकी मदद करने की कोशिश करता ना यह जानने का प्रयास करता कि आखिर किसने उसे इस अवस्था में पहुंचा दिया हैं। शायद मैं भी उनमें से एक थी। मैंने भी उस स्त्री के लिए कहां कुछ किया। चाह कर भी नहीं कर पाई। वापस घर आने पर सारी घटना मुझे कचोटती रही और क्रूर समाज का वो क्रूर रूप भी सामने आ जाता जिससे आज मेरा परिचय हुआ था। मुझे इस तरह विचलित देख मेरे मां-पापा मुझे दिलासा दिया। उस दिन अपने मां-पापा का अपने प्रति उस प्यार को देखकर मैं बिलकुल भावुक हो गई। हांलाकी ये प्यार कोई नया नहीं था। इस प्यार की छाया में ही मैं हर घड़ी बड़ी हो रही थी। मगर उस दिन उस प्रेम और स्नेह को देखकर लगा शायद उस औरत को भी ऐसे ही किसी के प्रेम और स्नेह की आवश्यकता है। लेकिन ऐसा क्या हो गया कि उसके अपनों का सारा प्रेम उसके प्रति खत्म हो गया और उसे घर के पुराने कबाड़ की तरह फेंक दिया गया।
दूसरे दिन जब मैं स्कूल गई तो पता चला कि उस औरत को स्कूल की प्रिंसिपल ने फिलहाल अपने पास रख लिया है। बाद में उसे मेरे पिता जी के बताए हुए एक महिला संगठन में भेज दिया गया। उसे नहा-धुलाकर नया कपड़ा पहना दिया गया था। लाल साड़ी में लिपटी उस स्त्री को स्कूल भवन से जब विदा किया जा रहा था, तब ऐसा लग रहा था मानों कोई दुल्हन अपने मायके से ससुराल को विदा हो रही हो।
उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि समाज बेहद क्रूर तो है मगर इसी समाज में संवेदनशील लोगों का जमात भी जीवित है और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में भी पीछे नहीं रहता। जरूरत है इस जमात को और खुलकर सामने आने की और खुलकर प्रतिवाद करने के अपने साहस को प्रदर्शित करने की।
आप का लेख इंसानियत का तकाजा पढ़ा काफी अच्छा था लेकिन आप ने उस औरत को देखा तो आपका कौतूहल भाग खड़ा हुआ अच्छी बात है और जो उस पर धयान नही देते वह भी शायद अच्छी बात नही है क्यू की नारी हमारी देश की संस्कृति है और अगर नारी का अपमान इस तरह होता रहा तो ये हमारे देश के हित अच्छा में नही है
ReplyDeleteगलत बात तो यह है की जो लोग कहते है हमे उस औरत से क्या मतलब है हमें तो अपने काम से मतलब ळें