Monday, September 29, 2014

सिविलाइजेसन आॅन ट्रायल'- वर्तमान परिदृश्य का प्रतिबिंब

   'सिविलाइजेसन आॅन ट्रायल'- वर्तमान परिदृश्य का प्रतिबिंब
                                                                                                                               -इति

जेएनयू का हर कोना कुछ बोलता है। देश में हो रहे दगों से लेकर सीमा में चीनी घुसपैठ के विषय पर अपनी आवाज़ उठाता है।  रविवार की रात भी जेएनयू का एक कोना देश-विदेश की समस्याओं के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर रहा था। पर ये आवाज़ एक अलग और बिलकुल रचनात्मक रूप में बुलंद की जा रही थी। एक नाट्य रूप में अर्थात कई गंभीर विषयों की कुछ मंजे हुए कलाकारों द्वारा मनोरंजक रूप में प्रस्तुति।

‘जुंबिश आटर्स ग्रुप’ द्वारा प्रस्तुत नाटक 'सिविलाइजेसन आॅन ट्रायल'
आज के माहौल में व्याप्त समस्याओं पर कटाक्ष करता दिख रहा था। जिसमें कभी गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ाए जाने पर हमला था (किस तरह हमारी सरकार 37 रूपए दिन में कमाने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से ऊपर मानने वाली बात कहती है।) नाटक में रूपए के गिरते मूल्य को दर्शाया गया था, अमेरिका द्वारा विश्व के कई श्रेत्रों में किए जाने वाले कब्जे की बात कही गई थी, तो वहीं औरतों की आबरू पर होते हमले और ढोंगी बाबाओं सहित समाज में मौजूद अन्य बुराईयों और समस्याओं पर भी सवाल खड़ा किया गया था।

हालांकि, इन विषयों पर पहले भी नाटक लिखे और उसकी प्रस्तुति भी की जा चुकी है। लेकिन इतने सारे विषयों को एक साथ किसी एक नाटक में कम ही उठाया जाता है.  किसी भी रचना में इतने सारे विषयों को एक साथ उठाना काफी चुनौतिपूर्ण होता है। खासकर सारे विषयों के साथ इंसाफ करना।

मगर जुंबिश आर्टस ग्रुप के इस नाटक की जहां तक बात की जाए तो नाटक की निर्देशिका 'स्वीटी रूहेल' का निर्देशन काफी मजबूत था। उन्होनंे सभी विषयों को बहुत ही बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया । नाटक की खासियत जो उसे अन्य नाटक से अलग कर रही थी वो था नाटक में पात्रों का चरित्र। जहां हर पात्र को एक विशेष कार्टªन कैरेक्टर में ढाला गया था। और उस विशेष कैरेक्टर की भूमिका और चरित्र में रह कर पात्रों ने इन कार्टून चरित्रों को जीते हुए कई गंभीर समस्याओं को उठाया था।

नाटक का एक दृश्य जहां 'डाॅलर खुद को गर्वान्वित
महसूस कर रही है, उसमें तेवर हैं, वो इठला रही है। तभी रूपया उसके पास आता है। उससे हाथ मिलाने की कोशिश करता है। मगर डाॅलर उसे ठुकरा देती है। उसे नीचा दिखाने की कोशिश  करती है। उसे बिलकुल हीन समझती है और अंत में उसे गिरा कर चली जाती हैं। रूपया बस यही सोच कर रह जाता है कि एक वक्त ऐसा भी था जब मैं भी इस डाॅलर को बराबर की टक्कर देता था। मगर आज मैं कितना गिर गया हूं।' नाटक के तमाम दृश्य के बीच मैं इस दृश्य की व्याख्या इसलिए कर रही हूं, क्योंकि डाॅलर के मुकाबले रूपये के मूल्य में आई गिरावट पर अब तक मैं कई खबरें पढ़ चुकी हूं । ना जाने कितनी ही बहसों को सुन चुकी हूं। मगर इस मुद्दे को इतने आकर्षक रूप में प्रस्तुत करते शायद देखी नहीं थी। नाट्य प्रस्तुति में इस दृश्य में एक लयात्मकता थी जो दर्शकों को बांधे रख रही थी। और दृश्य के खत्म होने पर दर्शकों को ताली बजाने पर मजबूर कर दिया था।

हालांकि, ये भी कहना बेमानी ही होगी कि नाटक में सबसे मजबूत सीन यही था। दरअसल सारे विषयों को इतनी संजीदगी से दर्शाया गया था कि पूरा नाटक दर्शकों को बांधे रखा था।


कोई भी नाटक कई लोगांे की मेहनत से ही संपन्न होता है या सफल होता है। अगर इस नाटक की बात की जाए तो कलाकारों की तारीफ ना करना बेमानी करने जैसा ही होगा। कार्टून कैरेक्टर में रहते हुए अपने पात्र और अपने संदेश को लोगों के सामने रखना सच में किसी चुनौती से कम नहीं रहा होगा। मगर इस चुनौती को नाटक के कलाकारों ने बहुत ही अच्छे से जीते हुए पार किया है। आदमियों को मशीनी बना दिया जाना, अमेरिका के सिमबौलीक रूप में मेरिका बाबा को पेश करना और विश्व में अमेरिका के पसारते पैर पर जिस तरह हमला किया गया था वो विश्व की आज की स्थिति का साफ प्रतिबिंबत करता मालूम हो रहा था। इसके साथ ही कल्लू के जरीए पूरे देश के गरीबी को बंया करना भी काफी सही रूप में प्रस्तुत किया गया था।

बहरहाल, नाटक में विषय तो बहुत थे, मगर उन विषयों के साथ सभी पात्रों ने पूरा इंसाफ किया था। मेरिका बाबा की भूमिका में चिराग गर्ग, कल्लू की भूमिका में नेहपल गौतम ने बेहतरीन अदाकारी पेश की। मगर अन्य कलाकार भी इन्हें पूरी टक्कर दे रहे थे। काॅरापोरेट और भारतीय नारी की भूमिका में सोनाली भारद्वाज की बात की जाए या किन्नर की भूमिका में श्याम कुमार साहनी और योगेन्द्र सिंह की तो उनकी अदाकारी किसी तारीफ से कम नहीं थी। इसके साथ ही बाकि के कलाकारों ने भी नाटक को पूरा रंग देने का काम किया था। नाटक की निर्देशिका स्वीटी रूहेल सहित सभी कलाकार ’’नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा’ के स्टूडेंट रह चुके हैं और उनमें वहां की अदाकारी की छाप साफ देखने को मिल रही थी जो नाटक को जीवंत बनाने का काम कर रही थी।

'सतीश मुख्तलिफ़' द्वारा शुरू किए गए नाटक ग्रुप जुबिंश आर्टस समाज में व्याप्त जाति, लिंग, वर्ग, नस्ल और धर्म के आधार पर हो रहे भेद-भावों पर सवालिया निशाना लगाने, हाशिए और वंचित तबकों की समस्याओं को सांस्कृतिक मंच पर उठाने और उस पर चर्चा करने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहा है। इस नाटक में भी कुछ इन्हीं विषयों और समस्याओं पर बात करके समाज में अपनी एक मजबूत भूमिका एक बार फिर दर्ज कराने का काम किया है इस ग्रुप ने।

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