Tuesday, July 8, 2014

विसंगतिग्रस्त समाज और स्त्री

                                   विसंगतिग्रस्त समाज और स्त्री
                                                                                                  - इति
                                                                                                                                     
                                           
पिछले साल सीमा बिस्वास का एक नाटक देखने को मिला था। रबीन्द्रनाथ रचित स्त्री पात्र केंद्रित नाटक ‘स्त्रीर पत्र‘ समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति को बयां कर रहा था। एक स्त्री के जीवन की कहानी के द्वारा समाज में स्त्रियों के लिए बनाई मानसिकता को सार्वजनिक करने की कोशिश की जा रही थी।
हालांकि, इन मुद्दों पर कई नाटक पहले भी देख चुकी थी। मगर सीमा बिसवास के नाटक में एक अलग बात थी।

कुछ अलग, कुछ नया। नायिका हर तरफ से ठुकराई जाती है। उसका अपमान किया जाता है। उसकी प्रतिभा और सुन्दरता को नकार दिया जाता है। उस वक्त शायद किसी के मन में भी यही खयाल आता कि वह स्त्री अब अपना आत्मबल खो देगी। सामान्यतः हमारे समाज में महिलाओं के साथ जैसा व्यवहार किया जाता है उसका परिणाम महिलाओं की आत्मविश्वास में कमी के रूप में सामने आता है। कई बार यह आत्महत्या का रूप भी ले लेता है। मगर यहां कुछ अलग होता है। यहां नायिका कहती हैं, आपने क्या सोचा कि मैं मर जाऊंगी। मैं आत्महत्या कर लूंगी। नहीं, मैं मरूंगी नहीं। नायिका द्वारा कहे ये चंद शब्द अपने में अनेक अर्थों को समाहित किये हुए थे। इनमें एक स्त्री का आत्मबल दिखता है। एक नई उम्मीद, एक नई  सोच, एक नई मंजिल की तलाश दिखती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पूरे विश्व में होने वाली मौत के 1.5 प्रतिशत मौत का कारण आत्महत्या ही होती है। इसमें से 20 प्रतिशत  आत्महत्या की घटना भारत में पाई जाती है। इनमें महिलाओं का प्रतिशत ज्यादा देखा जाता है।
अगर आत्महत्या की बात की जाए तो मनोचिकित्सकों ने इसे एक मानसिक बीमारी की श्रेणी में रखा है।
सबसे पहले व्यक्ति किसी चीज से डरने लगता है। यह डर कोई परिस्थिति भी हो सकती है, जिसके बाद धीरे-धीरे वो मानसिक तनाव से गुजरने लगता है। मानसिक तनाव फिर स्थायी रूप ले लेता है और वह लगातार उसी तनाव की स्थिति में रहने के कारण आत्महत्या के बारे में सोचने लगता है और अंत में उसे अंजाम भी दे देता हैं। कई बार ये आत्महत्या की कोशिश कोशिश तक ही रह जाती है मगर अधिकांशतः परिणाम मौत के रूप में ही सामने आती है। कुछ लोग अपने मानसिक तनाव को अन्य पीड़ादायी तरीकों से कम की कोशिश करते हैं ,जिसे ‘डेलिब्रेट सेल्फ हार्मिंग‘ कहते हैं।

सामाजिक आर्थिक स्टेटस में कमी, बेरोजगारी, बढ़ती उम्र, महिलाओं का घर की चार दिवारी तक ही सिमट कर रह जाना, बाहर काम ना करना, घरेलू हिंसा, पार्टनर से मनमुटाव, विश्वास में कमी आदि आत्महत्या के कारण देखे जाते हैं।

हमारे देश में आत्महत्या का ज्यादा प्रतिशत महिलाओं में देखा जाता है। मगर विश्वविख्यात फ्रंेच समाजशास्त्री ‘ऐमेल दख्राईम‘ के अनुसार समाज में महिलाओें की तुलना में पुरूषों की आत्महत्या का दर ज्यादा होता है। कारण कि महिलाएं समाजिक बंधन से ज्यादा जुड़ी होती हैं। यह उनके सामान्य स्वाभाव का हिस्सा होता है और वो एक सामाजिक कर्तव्य, पारिवारीक जिम्मेदारी को लेकर चलती है। ऐसी हालत में आत्महत्या करने के पहले उनके सामने अनेक परिस्थितयां और जिम्मेदारियां दिखने लगती हैं, जो कहीं-ना-कहीं उन्हें आत्महत्या करने से रोक देती है। मगर हमारे भारतीय समाज में और साथ ही कई अन्य समाज में भी ऐमेल दख्राईम की बात कुछ रूपों में सही साबित नहीं होती। ये कहना बिलकुल गलत नहीं कहा जा सकता कि भावनात्मक रूप में महिलाएं पुरूषों की अपेक्षा ज्यादा मजबूत होती हैं। मगर इस भावनात्मक मजबूती की भी एक सीमा होती है। हमारे समाज में महिलाओं की आत्महत्या के प्रायः दो प्रमुख कारण देखते हैं ,घरेलू हिंसा और उनके अस्त्तिव को नकारा जाना और ये दोनों ही प्रवृत्तियां महिलाओं को आत्महत्या की ओर प्रवृत करने के लिए हमारे भारतीय समाज में धड़ल्ले से जारी है।
आकंडे बताते हैं कि देश भर में हर तीसरी में से एक महिला घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। दुर्भाग्य की बात तो ये हैं कि आधी से ज्यादा ऐसी घटनाएं सामने आ ही नहीं पाती हैं। उसे दबा दिया जाता है। मगर वास्तविकता तो यह है कि सिर्फ घटनाओं को नहीं दबाया जाता इसके साथ कई अस्तित्व को भी दबा दिया जाता है।

‘स्त्रीर पत्र‘ नाटक में कुछ इन्हीं प्रमुख दोनों घटनाओं को चित्रित करने की कोशिश की गई थी। मुख्य पात्र की सुंदरता को उसके परिवार सहित सबने नकार दिया था। उसकी प्रतिभा सबकी आंखों में खटकती है इसलिए उसकी अवहेलना की जाती है। उसकी प्रतिभा को कुचलने और रोकने के प्रयास के रूप में उसे घरेलू कामों की परिधि से वंचित कर उसके अस्तित्व को नकार दिया जाता है। उसे कई बार घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता हैं। मगर यहां वह हार नहीं मानती है बल्कि परिस्थितियों से लड़ने की कोशिश करती है। और जब हर प्रयास के बाद भी परिस्थिति उसके अनुकूल नहीं होती तब भी वह हार नहीं मानती। वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने विवाह से जुड़े सारे संबंधों का परित्याग कर स्वतंत्र हो जाती है। मगर समाज में हर औरत के पास इतना साहस और इतनी सहनशक्ति शायद ही होती है या फिर कह सकते हैं कि समाज उनके इस हिम्मत को बाहर निकलने ही नहीं देता या उनके इस प्रयास को बड़ी बेहरहमी से नकार देता है। ऐमेल दख्राईम की यह बात यहां बिलकुल सही साबित होती है कि आत्महत्या कोई व्यक्तिगत कदम या परिस्थिति नहीं हैं, बल्कि यह एक सामाजिक परिस्थिति हैं। और इस परिस्थिति को समाज का एक हिस्सा पैदा करता है और बढ़ावा देता है।
किसी व्यक्ति के लिए उसका अस्तित्व, उसका वजूद बहुत मायने रखता है। चाहे वह स्त्री हो या पुरूष उसके लिए उसका अस्तित्व ही सबसे सर्वोपरि होता है जो उसके आत्मबल को सबसे अधिक प्रभावित करता है। और हमारे समाज में स्त्रियों के अस्तित्व को ही सबसे अधिक नकारने की कोशिश की जाती है। उसका अस्तित्व पुरूष के अस्तित्व के साथ ही जोड़ कर रख दिया जाता है। उसके स्वतंत्र अस्तित्व को गौण बना दिया जाता है। हालांकि अगर समाज के प्रारंभिक विकास की बात की जाए तो समाज में स्त्री की ही प्रमुखता/प्रधानता थी। उनके वजूद से ही प्रायः समाज को पहचान होती थी। ‘एंगेल्स‘ ने अपनी किताब ‘परिवार, राज्य और संपत्ति‘ में इस बात को बड़े ही अच्छे से बताया है। शुरूआत में जब विवाह नामक संस्था का कोई अस्तित्व नहीं था तब स्वच्छंद सेक्स का प्रचलन था। कोई भी पुरुष किसी भी औरत से और कोई भी औरत किसी भी पुरूष के साथ संबंध बना सकती थी। ऐसी परिस्थिति में औरत के पेट में पल रहे बच्चे के पिता की निश्चित पहचान के अभाव में बच्चे की पहचान मां के नाम से होती थी। मगर धीरे-धीरे समाज में औरत की प्रधानता को खत्म कर दिया जाने लगा। वर्तमान में भी दक्षिण भारत के एक समुदाय में स्वतंत्र सेक्स का प्रचलन है। मगर वहां बच्चे की पहचान मां  के नाम से नहीं होती है। पुरुष प्रधानता की मानसिकता के तहत वहां एक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है जिसमें उस बच्चे का एक पिता चुना जाता है और फिर उस सामाजिक बाप के नाम से बच्चे की पहचान की जाती है। इससे साफ पता चलता है कि स्त्रियों के अस्तित्व को नकाराने का कैसा-कैसा उपक्रम किया जाता है। हमारे देश की पहली महिला शासक को भी पुरूष मानसिकता का शिकार होना पड़ा था। हम सब जानते हैं कि उसका पहला नाम ‘रजि़या सुलताना‘ था मगर उसे ‘रजि़या सुलतान‘ के नाम से सामने आना पड़ा। उसे अपना पहनावा भी पुरूषों की तरह करना पड़ा। क्योंकि महिला पहचान के साथ शायद ही उसे शासक के रूप में कुबूल नहीं करता।

बहरहाल, इस सबके बावजूद लोगों का मानना है कि आज समाज बदल रहा है। समाज में स्त्रियों के अस्तित्व की पहचान की जा रही है। तो ये बात भी गलत नहीं मानी जाएगी। आज काफी बदलाव देखने को मिल रहें। मगर इसके साथ ही स्त्रियों को नकारे जाने की सच्चाई भी अब कहीं बड़े रूप में मौजूद है। उसके अस्तित्व को नकारना और हर तरह की हिंसा का शिकार होना आज भी धड़ल्ले से जारी है। ‘सीमौन दे बुगवा‘ की किताब द सैकेंड सेक्स (The Second Sex)  में औरतों को समाज द्वारा अलग जेण्डर बनाए जाने की बात भी यहां स्त्रियों को नकारे जाने और उनके आत्मबल में कमी की बात करता हुआ दिखता है। किताब में कहा गया है कि स्त्री पैदा नहीं होती उसे समाज पैदा करता है।  प्रकृति ने स्त्री पुरूषों में सिर्फ बायलाॅजिकल अंतर बनाया है। मगर समाज ने इसे अलग जेण्डर बनाकर इसके साथ अलग व्यवहार करना शुरू कर दिया। और समाज का यह व्यहवहार ही वह जड़ है जिससे समाज आज स्वयं सबसे अधिक, सबसे जटिल विसंगतियों और त्रासदियों से घिरा दिखता है।

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