Wednesday, February 2, 2011

चव्वनी बना इतिहास


          चव्वनी बना इतिहास
 . नए साल की शुरुआत में ही यह अहम् खबर आई की सरकार ने 25 पैसे का सिक्का बंद करने का फैसला किया है. अब 5 ,10 ,20 पैसो के सिक्कों  के तरह 25 पैसे के सिक्कों की इतिहास में सिमटने की बारी है. अब तो वह दिन भी दूर नहीं लगता जब 50 पैसे के घोड़े पर भी लगाम लगा दिया जायेगा. इन सिक्कों  की  बढती मांग का कारण रुपयों की बढ़ती माँग को माना जाये या फिर कुछ और . परन्तु गौर करने की बात तो ये है की क्या भारत से इन सिक्को के अस्तित्व  खत्म होने के साथ क्या लोंगो के जीवन से भी इनका अस्तित्व मिट जायेगा? आबादी का कुछ प्रतिशत तो इन सिक्को के अस्तित्व मिटने के पहले हीं  इनको अपने जीवन से दरकिनार कर दिया था. इनके लाखों के खेल के बीच चवन्नी का अस्तित्व तो पहले हीं धूमिल हो गया था. परन्तु भारत का एक आईना इसके ठीक विपरीत भी है. जहाँ लोंगो के लिए 25 पैसा भी खुशियों के सौगात की तरह है. भारत की विडम्बना भी अजीब है, जहाँ किसी परिवार के बच्चों की मासिक जेब खर्च 10-15 हजार या उससे भी अधिक है , वहीँ दूसरी तरफ किसी परिवार के लिए इतने रुपये सपने से भी बढ़कर है. आज भारत में लोंगो की विचलित करने वाली तस्वीर मौजूद है , जो 10  पैसे की दर से प्रतिदिन मजदूरी करने पर विवश हैं. इससे अधिक तो लाखों में फैले भिखारियों की आमदनी हैं.परन्तु शायद इन लोंगो के जेहन में कहीं -न- कहीं अभी भी आत्मसम्मान के अंश बाकि है, जो इन्हें भीख मांगने से बेहतर भूखे मरने की प्राथमिकता देते हैं. वाकिया तो ये हैं की कुछ महिलाओं को बिंदी के 144 पत्ते  बनने के 5 रुपयें मिलते हैं,4 बुरखा सिलने पर 25 रूपए  हीं नसीब होते हैं. हजारों हजारों किताब की बैंडिंग पर लोंगो को सिर्फ 90 पैसे हीं नसीब होते हैं. सबसे बड़ी  विडंबना तो यह है की ये दकियानुस समाज इनसे मुंह फेरे हुए है और सिर्फ इनकी मज़बूरी को अपने फायदे का मौहरा बना बैठा है.
                                             इन सब के बावजूद कहा जा रहा है की रुपयों के मूल्य में वृद्धि हुई है. यह बात कुछ  हजम नहीं होती. रुपयों के मूल्य में वृद्धि सिर्फ आलिसन चार दिवारी में रहने वाले लोंगो के लिए हुई होगी,परन्तु टूटी फूटी झोपडी और सड़कों पर रहने वाले सामाजिक प्रताड़नाओ के शिकार से बने इन कठपुतलियों के लिए तो अभी भी 25 पैसा खुशियों की सौगात हैं.

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